-- प्रभु ! फिर हो ऐसा परिवर्तन ।
कपट, स्वार्थ, मात्सर्य, त्यागकर शुद्ध सत्वमय बने जगत्-जन ।
यथा लाभ से तुष्ट-पुष्ट हों, सत्पथ की पहचान करें
हों कृतज्ञ, कर्तव्य-बोध हो, श्रमजीवी का मान करें
अनुदिन गत-चिन्ता, चिन्तनरत करें आत्म-परिचय हित मन्थन ।।
व्यसन-विलास न हो अभीष्ट, न अतृप्य कांक्षा हो धन की
और न भ्रमित करे नर-वर को भँवर-कामिनी कंचन की
अब न बने गौरव-प्रतीक उँचे प्रासाद, अनैतिक वाहन ।।
अन्यायोपार्जक, श्रमवंचक, परधनहारी नित निन्दित हों
ढोंगी, लम्पट सकुल नष्ट हों, पर-उपकारी जग वन्दित हों
'जियो व जीने दो' का शुचि-सन्देश झरे निर्मल तारायण ।।
पशुवत् उदरपूर्ति, प्रजनन तक ही न रहे ध्येय जीवन का
कभी शान्त, नीरव, विविक्त हो योग करें अन्तर्मन का
विदुष, विपश्चित् सोंचें को हम? कुत:? कहाँ जाना फिर तज तन ।।
मातृ, पितृ, गुरू और अतिथि को देव-सरिस अति आदर दें
सुधी, मनीषी, सन्त, साधकों को सम्मान, समादर दें
त्याग वितण्डावाद सुहृदजन करें नये युग का अभिवादन ।।
पर हा ! अनुपम कृति विरंचि की क्यों कर विषयी-श्वान हो गयी
भौतिकता के अंधड में मानवता जाने कहाँ खो गई
बहुना किं, ये 'आर्त' चाहता प्रेम-प्रवाह पुन: हे भगवन !
फिर होता ऐसा परिवर्तन ।।
सुन्दर कविता.
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