हर ग़ज़ल कुछ कहती है
ये ग़ज़ल मैंने तब लिखी थी जब मै शायद ग़ज़ल का मतलब भी नहीं समझता था..
उन दिनों मेरे ऊपर शायद शनि की कुदृष्टि थी..
हर तरफ से हार और घर में अपनों से ही जिल्लत
जब आँखों से आंसू निकलना बंद हो गए तो लेखनी ने रोना शुरू किया
और फिर अपनी व्यथा कथा लिखने के चक्कर में दिल से कुछ ऐसी सच्चाई निकली जो पूरी दुनिया पर लागू होती है..
इन में कुछ कठिन शब्दों का भी प्रयोग किया है
जहाँ भाव ग्रहण करने में कठिनाई हो, टिप्पड़ी में लिख दीजियेगा
आज हूँ विकल, लिख रहा ग़ज़ल
जग की दुर्दशा, द्वंदों में फंसा
दलदल में धंसा जैसे मर्कट दल
तप्त आसमान, हांफ रहे स्वान
पथ हुआ अनजान, खो रही मंजिल
थके- थके पाँव, धूप और छाँव
उलटे पड़ते दाँव, हारा हुआ दिल
हर तरफ अशांति, मन में छिपी भ्रान्ति
मलिन होती कान्ति, जैसे गन्दा जल
हाय महात्राश, यम का कड़ा फाँस
मिटती सी हर स्वांस ना रहेगी कल
क्या लिखूं ग़ज़ल
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मेरी रचनाएँ
हर रंग को आपने बहुत ही सुन्दर शब्दों में पिरोया है, बेहतरीन प्रस्तुति ।
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