कवि आर्त की ये रचना हमें हर पल ये ध्यान कराती है कि अपना पेट तो पशु भी पाल लेता है | अगर हम सिर्फ अपने तक ही सीमित रहे तो हममे और पशुओं मे क्या भेद रह जायेगा|
हमे अपने सुखों के साथ साथ ये भी देखना है कि कहीं हमारी विलासिता किसी के दुख का कारण तो नहीं बन रही
कहीं मानव मूल्यों से भटक तो नहीं गये है
और अगर एसा है तो ध्यान रहे वो अन्तर्यामी हमारी सारी गतिविधियां देख रहा है और हमारे हर एक पल का हिसाब लिख रहा है| जितना हम यहां करेंगे उतना हमें भरना भी पडेगा
सोचो क्या खोया, क्या पाया?
किन मूल्यों के बदले हमने एक संवत्सर और गवाया ?
कितने आपदग्रस्त जनों को सत्वर बढकर दिया सहारा ?
अबतक कितने असमर्थों, दुखियों का दूर किया दुख सारा ?
सृजनहार के चिन्तन में कब रूध्दकण्ठ दृगबिन्दु बहाये ?
अब तक कितने बार सुधी, विदुषों के संग दिन रैन बिताये ?
कितने संकट ग्रस्त मानवों का हमने संत्रास मिटाया ??
किन मूल्यों के बदले हमने.............................
क्या सन्मति की चाह त्यागकर सम्पति के ही रहे पुजारी ?
वित्त- वासना- लिप्त रहे नित, कर्म विमुख, हो मिथ्याचारी ?
उच्चाकांक्षाओं की वेदी पर कितने असहाय चढाये ?
सब कुछ लब्ध हो गया फिर भी मन- तुरंग; को चैन न आये ?
भोग असीम भोग कर भी परिमोषक मन को तोष न आया ||
किन मूल्यों के बदले हमने.............................
पिशुन, चाटु, परूषाक्षर के बल अकर्मण्य भी रहे सयाने
हम प्रबुध्द भी धन- बल- मत्तों के दुश्चरित लगे अपनाने
चिर अतृप्ति ही नियति बन गयी, कर्तब्यों से दूर हो गये
विश्व जागरण के ध्वज वाहक विषयी श्वानो मध्य खो गये
समय, श्वास की सीमित निधि को पंच वंचकों बीचा लुटाया
किन मूल्यों के बदले हमने.............................
छद्म धर्म का आलम्बन भी लिया भावनायें ठगने को
बने विरागी, सन्यासी भी निरा कर्म- पथ से भगने को ,
जग को देता सदुपदेश, वह भी विषयों का दास हो गया
भौतिकता की आंधी में जीवन- मूल्यों का ह्रास हो गया
सबको ज्ञान बाटने वाले, कभी स्वयं को भी समझाया ??
किन मूल्यों के बदले हमने.............................
जीवन क्यों, किससे कितना है? कभी किये क्या इस पर मन्थन ?
अपनों की किलकारी में क्या सुन पाये दुखियों के क्रन्दन ?
देकर दोष भाग्य को उनके, हम निष् ठुर हो कुछ न कर सके ?
अपनी थाली से सतांश भी देकर भुक्षित उदर भर ?
जन्म- लक्ष्य से भटक गये हम, सोच, कभी क्या दिल भर आया ??
किन मूल्यों के बदले हमने.............................
ध्यान रहे- ईश्वर रखता हम सबके कर्मो का लेखा है |
रंक, महीप, मूढ, ज्ञानी -सबका प्रारब्ध- भोग देखा है
कालबली के दीर्घ, सशक्त करों से कहो कौन बच पाया ?
उस विभु की बलवती, छली माया ने किसको नहीं नचाया
''आर्त'' सुखी है जिसने शुभकृत्यों से अन्त: कलुष मिटाया
किन मूल्यों के बदले हमने.............................
कवि श्री अनिरूध्द मुनि पाण्डेय ''आर्त'' के ''आर्त भजन संग्रह'' से साभार
बहुत अच्छी प्रस्तुति
ردحذفbahut khub
http://kavyawani.blogspot.com/
shekhar kumawat
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