कविवर आर्त की ये रचना हमें हर हाल में सकारात्‍मक सोंच रखने को प्रेरित करती है
पढिये- अच्‍छा लगेगा।
टिप्‍पणी जरूर करियेगा कि मै जान सकूं कि आपको ये रचना कैसी लगी।।


निर्मल पथ के धीर बटोही व्‍यथित ठहर मत जाना
जीवन है संग्राम अहो! फिर क्‍यूं, कैसा घबराना  ।।

कुश- कण्‍टकाकीर्ण मग दुस्‍तर मंजिल तक अनजाना
कानन विजन पन्‍थ श्रम संकुल तदपि न तुम उकताना
विपदाओं के वक्ष फाड नभ में निज निलय बनाना  ।।

बर्फीली चट्टानों में जो क्षुधित यामिनी जगते
जिन्‍हें तोप -गोलों के गर्जन मधुर गीतमय लगते
अनिमिष दृगों देखते जो निज गौरव स्‍वप्‍न सुहाना  ।।

विशद विपर्यय, विप्‍लव भी विचलित न जिन्‍हें कर पाते
विशिका, विशिष सेज पर भी जो श्रुति संदेश सुनाते
उन प्रचण्‍ड पुरूषार्थ- रतों को निज आदर्श बनाना  ।।

काल चक्र अविरल, अविजित, है उससे कौन बचा है ?
तदपि चतुर्दिक दम्‍भ, स्‍वार्थ, तृष्‍णा का रोर मचा है
नरशार्दूल! न विषयी श्‍वानों मध्‍य श्रेय विसराना  ।।

रह न गये जो चक्रवर्ति नृप त्रिभुवन जयी कहाये
अगणित भूपति, सन्‍त अन्‍त धरणी की क्रोड समाये
अन्तिम शरण मरण है बाउर! फिर किस पर इतराना  ।।

सम्‍वत् सहस विषय जो भोगे, क्‍या वे तृप्‍त हुए हैं  ?
शक्रादिक क्‍या त्रिविध ईशनाओं से मुक्‍त हुए हैं  ?
सुधी! अमृतमय अमलाम्‍बर के तुम विहंग बन जाना  ।।

अनृत, अमर्ष, अतुष्टि, अनय की अनी अनेक सजी है
साधु- असाधु बने सौदागर, क्‍या दुर्मति उपजी है
"आर्त" विश्‍व वाटिका प्रभू की, हो निर्लिप्‍‍त सजाना  ।।


कुछ कठिन शब्‍द समाविष्‍ट हैं, अवगत न होने पर टिप्‍पणी में लिखियेगा



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ANAND

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