हम जब भी किसी की कानाफूसी कर रहे होते हैं या कोई ऐसी बात कर रहे होते हैं जिसे हम अपने तक ही सीमित रखना चाहते हैं तो हम कितने मंद स्‍वर में बात करते हैं इसका अनुभव आप सब का होगा ही ।
अब ऐसी परिस्थिति में जब आप परम एकांत में ही क्यूँ न बात कर रहे हों या किसी ऐसी काल कोठरी में जिसके कि बाहर आवाज का जाना असम्‍भव हो तब भी इस तरह की गूढ बातें करते समय जब सामने वाला थोडी तेज आवाज में बात करने लगता है तो त्‍वरित ही आपके मुख से अनायास ही निकल जाता है - भाई जरा धीरे बोलो क्‍यूँकि दीवालों के भी कान होते हैं ।

अब सच बताइयेगा इस वाक्‍य को बोलने से पहले क्‍या आप एक भी बार कुछ भी सोंचते हैं-
मसलन यह बात किसने सबसे पहले कही । इस विचार का आविष्‍कार सबसे पहले किस देश में हुआ । 
या यह लैटिन और फ्रेच के फला शब्‍दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ फला है ।
नहीं न , 
इसीलिये तो ये सूक्ति आज भी शत प्रतिशत भारतीय है।
अन्‍यथा अगर कहीं इसपर भी कोई समाजशास्‍त्री या तर्कशास्त्री की नजर पड जाती तो आज यह उक्ति भी विदेशों द्वारा प्रतिपादित बता दी जाती ।
जैसा कि समाजशास्‍त्र अंग्रेजी के शब्‍द सोसियोलाजी का हिन्‍दी रूपान्‍तरण है और ये लैटिन के दो शब्‍दों सोसियस और लोगस से मिलकर बना है । इसका सर्वप्रथम प्रयोग आगस्‍ट काम्‍टे ने किया वगैरह वगैरह ;;;;;;
पर शुक्र है इसपर अभी तक किसी भी आगस्‍टकाम्‍ट की नजर नहीं पडी ।

अब आज पहली बार आप ये सोचने को थोडा सा मजबूर हुए होंगे कि वाकई इतनी प्रसिद्ध और प्रासंगिक उक्ति को सबसे पहले किसके अनुभव ने समाज को दिया होगा ।
किस ब्‍यक्ति ने इतनी दूर तक सोंच कर बताया होगा कि दीवारों या जमीन के भी कान होते हैं अत: गोपनीय बातें धीरे ही बोलिये ।

चलिये आपको बताता हूँ 
ये उक्ति एक वैदिक सूक्ति है 
इस सूक्ति का सर्वप्रथम प्रयोग हमारे पवित्र वेदचतुष्‍टय में से गानपरक सामवेद के आरण्‍यक भाग में किया गया है ।
सामवेद के जैमिनिशाखीय जैमिनीयब्राह्मण में यह एक श्‍लोक के रूप में उद्धृत है ।
मोच्‍चैरिति होवाच कर्णिनि वै भूमिरिति 
जिसका भावार्थ है -
उँचे मत बोलो, भूमि के भी कान होते हैं ।

यह वाक्‍य आज भी कितना चरितार्थ है यह कहने की आवश्‍यकता नहीं है । आप सब स्‍वयं जानते हैं ।
ऐसी ही हजारों उक्तियाँ जो बाद में दुनिया भर के लोगों ने अपने नाम से लिखवा लीं, वो सब वेदों से ही ली गई हैं । पर संस्‍कृत का सम्‍यक अध्‍ययन न होने के कारण हम आज भी अपने उस अपार ज्ञान भण्‍डागार से वंचित हैं ।
और हमारे सारे ज्ञान का पूरा उपयोग ये विदेशी कर रहे हैं और हमें ही चिढा रहे हैं ।

सच में ये कितनी बडी विडम्‍बना है , है न !


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