तुम ही कहो मनमीत मैं क्‍या गीत गाऊँ
किस बात पे हँसूं कहाँ आँसू बहाऊँ ।।

वेदों से उपजी हिन्‍दु संस्‍कृति नित्‍य नयी 
इसके आगे उपराम हुईं सभ्‍यता कई
इसने जीना सिखलाया पशु से पृथक किया
सद्भाव सिखाकर सबके अवगुण दूर किया
कितनी तरह इतिहास का उपक्रम सुनाऊँ ।।
तुम ही कहो मनमीत मैं क्‍या गीत गाऊँ ।।

कितने शताब्‍द धर्म का शासन रहा
भगवान् भी इन्‍सान बन आया यहाँ
सोने की चिडिया हिन्‍द कहलाने लगा
यह देखकर अरियों के मन लालच जगा
मंशा बनी इस स्‍वर्ण खग को नोच खाऊँ ।।
तुम ही कहो मनमीत मैं क्‍या गीत गाऊँ ।।

फिर हो गई शुरुआत अत्‍याचार की
शक-हूण-मुगल-फिरंग के तलवार की
अन्‍यायियों के हर तरफ विस्‍तार की
अबला बनी माँ भारती चीत्‍कार की
अपनी विपति ले आज किसके द्वार जाऊँ ।।
तुम ही कहो मनमीत मैं क्‍या गीत गाऊँ ।।

आतंक का साम्राज्‍य जब बढने लगा
भारतसुतों में शौर्य का अंकुर उगा
हिन्‍दू-मुसलमाँ हाँथ में तलवार ले
कंधा मिला जय हिन्‍द की हुँकार ले
यह प्रण लिया अरि सामने न सिर झुकाऊँ ।।
तुम ही कहो मनमीत मैं क्‍या गीत गाऊँ ।।

भारत महासंग्राम हम मिलकर लडे हैं
पर आज कुछ मतभेद वैचारिक खडे हैं
हैं याद मंगल भगत तात्‍या चन्‍द्रशेखर
लक्ष्‍मी शिवा राणा सुभाष बलवंत तो फिर
अशफाक, अब्‍दुल की बलि कैसे भुलाऊँ ।।
तुम ही कहो मनमीत मैं क्‍या गीत गाऊँ ।।

हर रोज अपने आप से लडता रहा मैं
ये हिन्‍दू ये इस्‍लाम सिख इनमें कहाँ मैं
मन्दिर-मस्जिद-गुरुद्वारों-चर्चों में बँटा मैं
होता किसी पर वार पर हर दम कटा मैं
इस द्वन्‍द्व से कब मुक्ति का आनन्‍द पाऊँ ।।
तुम ही कहो मनमीत मैं क्‍या गीत गाऊँ ।।

कवि आनन्‍द अवधी
(विवेकानन्‍द पाण्‍डेय)



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